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Wednesday 2 February 2011

ब्लॉगिंग ये रोग बड़ा है जालिम

ब्लॉगिंग: ये रोग बड़ा है जालिम


ये ब्लोगिंग की लत किसी नशे की लत से कम नहीं होती. ये मैं अपने अनुभव से बता रहा हूँ और मेरा अनुमान है कि आपमें से अधिकाँश लोग मेरी बात से सहमत होंगे. इस पोस्ट में ब्लोगिंग के साथ अपने अब तक के अनुभव को आपसे साझा करूँगा.

ये मेरे नए ब्लॉग या कहें कि ब्लोगिंग की इस पारी की पहली पोस्ट है इसलिए शुरुआत ज़रा बैकग्राउंड से करना सही रहेगा. पहली बार 'ब्लॉग' शब्द शायद २००३-०४ के आसपास सुना था. नया नया एनसीआर (गाजियाबाद) आया था. कम्प्यूटर पहली बार वहीं देखा और यूज किया. तब ब्लॉग का मतलब बस यही समझ में आया था कि इससे मुफ्त में वेबसाईट बन जाती है.. और आपको पुरी दुनिया उसपर देख और पढ़ सकती है.. नेट पर अपना नाम देखने का ही अलग चाव था. फोटो देखना सभव नहीं था क्योंकि डिजिटल कैमरे और स्कैनर तक पहुँच नहीं थी उस वक्त. तो एक ब्लॉग बनाया हमने भी. करना क्या है ये नहीं पता था. तो वही किया जो बहुत से नए ब्लोगर शायद आज भी शुरू में करते हैं. हिन्दी साहित्य के एक पोर्टल पर जाकर दो चार कवियों की कविताएँ कॉपी की और अपने ब्लॉग पर चेप दीं (कॉपीराइट किस चिड़िया का नाम है, नहीं पता था). और सीना चौड़ा करके रूम पर आ गए (ये क्रांतिकारी कार्य साइबर कैफे में २० रूपये कुर्बान करके हुआ था). लगा कोइ बड़ा किला फतह कर लिया है. ब्लॉग ट्रैफिक वगैरह तकनीकी  चीजों का पता नहीं था. मुझे तो लग रहा था की लाखों लोग अब मेरे ब्लॉग पर आ रहे होंगे.

उसकी बार जब भी कैफे जाता ब्लॉग को खोलकर देखता और बस मन गदगद हो जाता. फिर २००७ में दिल्ली आया. तब तक वो ब्लॉग तो वहीं का वहीं था.. पर कम्प्युटर के बारे में तकनीकी ज्ञान ठीक-ठाक हो गया था. दुनियादारी की समझ भी थोड़ी बढ़ गयी थी. फिर जे एन यू आया तो एक अच्छा एकेडमिक और वैचारिक वातावरण मिला जिसका प्राइवेट इंस्टीट्यूट्स में अभाव होता है. फिर एक नया ब्लॉग बनाया- नाम रख दिया जेएनयू. कुछ महीने बाद महसूस हुआ की नाम उचित नहीं था. सुनने से जेएनयू का आधिकारिक ब्लॉग मालूम होता था. पर फिर छोड़ दिया लापरवाही में. शुरू में तो ब्लॉग पर काफी जोर-शोर से पोस्टिंग की पर फिर धीरे धीरे आलस बढ़ता गया और साथ में पोस्ट्स के बीच का अंतराल भी. फिर करीब करीब बंद ही हो गया. और भी एक दो ब्लोग्स थे जो ठहर-ठहर के चलते चलते बंद से ही हो गए.

इस साल के शुरू में कोरिया सरकार की स्कोलरशिप के लिए अप्लाई कर दिया; मिल भी गयी. अगस्त, २०१० में  कोरिया आ गया. यहाँ एक तो बात करने वाला कोइ नहीं, सोचने का समय काफी. ब्लोगिंग का कीड़ा फिर कुलबुलाने लगा. सोचा, पैसे हैं अपना डोमेन और वेब होस्टिंग लिया जाए, थोड़ा सीरियसली ब्लोगिंग की जायेगी. कई सारे वेब-होस्टिंग पैकेजेज पर रिसर्च किया. सालाना करीब करीब ५०-६० डॉलर का खर्च था. पर अपने आलसपन पर शक था अभी भी. कहीं एक-दो महीने बाद जोश ठंडा पड़ जाए तो पैसे बेकार.. फिर एक दिन नेट पर भटकते हुए दिल्ली की एक कपनी का विज्ञापन देखा जो मात्र ९० रूपये में .in वाले डोमेन बेच रही थी. हमने फोन लगाया बात हुई और दिल्ली में एक मित्र को बोलकर कंपनी के अकाउंट में पैसे ट्रांसफर करवाए. दो डोमेन खरीदे- www.topikguide.in जो कि कोरिया भाषा क्षमता परीक्षण की तैयारी से सम्बंधित है और दूसरा scsatyarthi.in जिसके एक सब-डोमेन  http://korea.scsatyarthi.in/ पर यह ब्लॉग है. फिलहाल कुछ समय तक गूगल ब्लोगर पर फ्री होस्टिंग की ही सेवा लेने का निर्णय लिया. बाद में मन हुआ तो खुद होस्ट किया जायेगा.

शुरू में बड़ी टेंशन का विषय था कि ब्लॉग हिन्दी में बनाया जाये या अंगरेजी में. लगा अंगरेजी में यह ब्लॉग एक ज्यादा बड़े टारगेट तक पहुँच पायेगा और अधिकाँश इन्टरनेट यूजर्स को अंगरेजी आती ही है. पर फिर लगता यार हिन्दी मातृभाषा है. भले ही कम लोग पढेंगे हिन्दी में पर उनसे जो अपनापन मिलेगा वह अंगरेजी में संभव नहीं. और अंगरेजी में पहले से हर विषय पर पहले से हजार ब्लॉग हैं- कोरिया पर भी; हिन्दी में सामग्री का अभाव है नेट पर....  इस तरह के ढेर सरे तर्क वितर्क.. अंत में हिन्दी की ही जीत हुई.

 आपका स्वागत है इस नए बसेरे पर.. आप थोड़ा उत्साह बढाते रहेंगे तो लिखने का जोश बना रहेगा.. लिखने की शैली बोरिंग है पर झेल लीजिए.. आगे सुधारने की कोशिश करूँगा. खासकर ब्लॉग जगत के पुराने धुरंधरों से विशेष स्नेह और मार्गदर्शन चाहूँगा.. ;)


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